‘जाने दे मै’का…सुनो सजनवा!

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पण्डितश्री बिरजू महाराज को देखना कला को साक्षात देखना था। मैं कहता रहा हूं कि कला की कोई काया होती तो वह बिरजू महराज जैसे होती। उनकी तरह ही नाचती-गाती, बजाती, शब्द-भाव-ध्वनि-देह से ऐसे ही संवाद करती। उन्हें देखकर लगता था, भरतमुनि की नाट्य संबंधी पूरी संकल्पना एक देह में जीवंत हो उठी है।
मुझे उनका नृत्य और रसाभिनय तो मोहक लगा ही, उनकी स्वर-सिद्धि ने भी बहुत प्रभावित किया। उन्हें गाते और रसाभिनय करते देखना दिव्य अनुभव होता था। वह तबला, हारमोनियम भी बड़े अधिकारभाव से बजाते थे।
जहां भी नृत्य, वाद्य या संगीत की बात होती–मैं बिरजू महराज की चर्चा जरूर करता। कल रात को हो, एक मित्र से संगीत पर लंबी चर्चा हो रही थी—तो मैंने उनसे कहा, ‘तुमने कभी बिरजू महराज को गाते सुना है?’ फिर, उन्हें कुछ क्लिप भी भेजीं। उसी बहाने मैंने फिर से वह सब सुनीं। गाते हुए रसाभिनय करने में…वह अद्वितीय हैं।
सुबह उनके प्रयाण की सूचना मिली। सोचने लगा, जब रात में उन्हें सुन रहा था यह वही समय रहा होगा जब महराज को पार्थिव की सीमा तोड़कर असीम होने का संकेत मिल रहा होगा। माया ने रोका तो होगा ही, तब उन्होंने अपनी चिर परिचित भंगिमा में गाया होगा…
काहे करत तुम नित नित हम संग रार
नाहीं नाहीं मानूँगी तोरी…
जाने दे मै’का

सादर नमन पण्डितश्री