अजय ‘दुर्ज्ञेय’

लोहे को उनसे प्रेम था या नहीं,
नहीं पता…
मगर उनके पूरे जीवन को देखते हुए
एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती थी
कि उन्हें जरूर लोहे से बहुत प्रेम था
मैंने उन्हें जब भी देखा तो
या तो लोहे के साथ गर्म होते देखा,
या फिर लोहे की तरह पिघलते देखा
(और कभी-कभी लोहे की तरह पिटते भी)
उन्हें टेढ़े से टेढ़े और कुंद से कुंद लोहे को भी
सीधा और तीक्ष्ण करना आता था
संक्षेप में लोहा उनका चेला था(सहयात्री भी)
गाँव और पंचायत के अनुसार
लोहा उनके अस्तित्व से इतना चिपक गया था कि
उन्हें और उनके परिवार को लोहे से अलग करके देखना असंभव था
और इसीलिए जब मेरे पिता ने
जरा सा समर्थ होते ही बाबा को लोहे का काम छुड़ाया
तो गाँव और पंचायत को सबसे ज़्यादा पीड़ा हुई
और इसी पीड़ा का परिणाम रहा कि
एक दिन जब वे अकस्मात मृत पाए गए
तो उनके शरीर में भी कुछ लोहा मिला…
लोगों ने कहा कि एक लोहार के शरीर में
लोहा नहीं तो और क्या मिलेगा?
पिता चुप थे…
शायद वे जानते थे कि उनके पिता
शरीर में मिले लोहे को कभी नहीं जानते थे
और यह भी कि वह लोहा आयातित था
इन सबसे परे मैं
चुप और चिंतित दोनों था!
क्यों?
क्योंकि मैं जानता था कि
मेरे पिता भी कभी लोहार हुआ करते थे…