
आचार्य रामानुज के पास एक आदमी आया और उसने कहाः महाराज, मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं साधना करके भगवान को पाना चाहता हूं। आचार्य रामानुज ने उससे कहाः परमात्मा की बात हम बाद में भी कर सकते हैं। पहले मेरे एक सवाल का जवाब दो। क्या तुमने कभी किसी से प्रेम किया है? उस आदमी ने जवाब दियाः महाराज, मैं प्रेम के झंझट में कभी पड़ा ही नहीं। मेरा तो जिंदगी में एक ही लक्ष्य रहा– परमात्मा को पाना। आचार्य रामानुज ने उससे कहाः भाई सोच लो, याद कर लो, फिर बताओ। कभी किसी मित्र से, मां से, भाई से, पत्नी से, किसी स्त्री से, किसी से तो प्रेम किया होगा? उस आदमी ने बहुत गर्व के साथ जवाब दिया: मैं कभी इस सांसारिक मायाजाल में फंसा ही नहीं। प्रेम से मेरा कभी दूर का भी वास्ता नहीं रहा। इस पर रामानुज ने उससे कहाः मैं असहाय हूं। मैं तुम्हें अपना शिष्य नहीं बना सकता। तुमने अभी तक प्रेम को जाना ही नहीं, तो तुम भक्ति को कैसे जान पाओगे? भक्ति प्रेम का ही विस्तार है, उसकी चरम परिणति है।