
कितनी भी घृणा सामने मौजूद हो, हम अपने सृष्ट आचरण से उसे पूरी तरह से प्रेम में बदल सकते हैं।
सन् 1893, शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदूधर्म का प्रतिनिधित्व स्वामी विवेकानंद कर रहे थे। 11 सितंबर को अपना प्रवचन देने जब वे मंच पर पहुंचे, तो वहीं ब्लैक-बोर्ड पर लिखा हुआ था-” हिंदूधर्म मुर्दाधर्म ।’ स्वामीजी ने अपना भाषण शुरू किया, संबोधन था, “अमरीकावासी बहनों व भाइयो।” समूचा सभामंडप तालियों की आवाज से गूंज उठा। ‘लेडीज एंड जेंटिलमेन’ सुनने वालों के कानों में पड़े युवा संन्यासी के इस संबोधन ने मानो सबकी आत्मा को हिला-सा दिया। इन शब्दों से स्वामी जी ने हिंदूधर्म के शाश्वत मूल्यों की ओर संकेत कर दिया था- भाईचारा, आत्मीयता।
5 मिनट की जगह वे 20 मिनट तक बोले। समय से अधिक बोलने का अनुरोध सम्मेलन के अध्यक्ष कार्डिनल गिबन्स ने किया था । यहीं से सूत्रपात हुआ हिंदूधर्म की वैज्ञानिक व्याख्या का और एकबार फिर से विश्वे 6 स्वीकार किया- भारत अब भी विश्व गुरु है। उसके ‘सर्वधर्म समभाव’ का सिद्धांत शाश्वत व श्रेष्ठ है।
स्वामीजी ने हिंदूधर्म की विजय पताका अमेरिका के विश्व धर्म सम्मेलन में फहरायी थी, उससे जो आहलाद उस समय के गुलाम भारतीय जनमानस को हुआ था, शब्दों में उसे बांध पाना असंभव-सा है।
स्वामीजी के भारत आगमन पर महाराज खेतरी ने अपने दरबार में उनका अभिनंदन करना चाहा। समारोह में नृत्य का भी आयोजन किया गया था-दरबार की परंपरा के अनुसार नृत्यांगना यह जानकर अत्यंत प्रसन्न थी कि ‘आज वह उसके सामने गायेगी-नाचेगी जो ‘समन्वय’ का प्रचार-प्रसार करने वाला एक युवा संन्यासी है नकि धन दौलत पर नाज़ करने वाला कोई ऐय्यश युवा ।