रोजाना एक कविता: आज पढ़िए आधुनिक युग की मीरा यानी Mahadevi Verma की 5 श्रेष्ठ कविताएं

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Mahadevi Verma
Mahadevi Verma

आज पढ़िए आधुनिक युग की मीरा यानी Mahadevi Verma छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनकी कविता, कविता न होकर गीत सी लगती है। आज पढ़ें उनके लिखे लिखित उनकी 5 श्रेष्ठ कविताएं

  1. जाग तुझको दूर जाना ! (Mahadevi Verma)

अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले !
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले ;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया
जागकर विद्युत शिखाओं में निठुर तूफ़ान बोले !
पर तुझे है नाश पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना !
जाग तुझको दूर जाना !

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?
पंथ कि बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले ?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन ,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस – गीले ?
तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना !
जाग तुझको दूर जाना !

वज्र का उर एक छोटे अश्रु – कण में धो गलाया ,
दे किसे जीवन – सुधा दो घूंट मदिरा मांग लाया !
सो गयी आंधी मलय की वात का उपधान ले क्या ?
विश्व का अभिशाप क्या चिर नींद बनकर पास आया ?
अमरता – सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर मे बसाना ?
जाग तुझको दूर जाना !

कह ना ठंडी सांस में अब भूल वह जलती कहानी ,
आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी ;
हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका ,
राख़ क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी !
है तुझे अंगार – शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना !
जाग तुझको दूर जाना !

2. मिटने का अधिकार (Mahadevi Verma)

वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुरझाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना!

वे सूने से नयन,नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज,नही
जिसमें बेसुध पीड़ा, सोती!

वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह
वह अनन्त रितुराज,नहीं
जिसने देखी जाने की राह!

ऎसा तेरा लोक, वेदना
नहीं,नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं, नहीं
जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरे मिटने का अधिकार

  1. मैं अनंत पथ में लिखती जो सस्मित सपनों की बातें (Mahadevi Verma)

मैं अनंत पथ में लिखती जो
सस्मित सपनों की बातें
उनको कभी न धो पायेंगी
अपने आँसू से रातें!

उड़् उड़ कर जो धूल करेगी
मेघों का नभ में अभिषेक
अमिट रहेगी उसके अंचल-
में मेरी पीड़ा की रेख!

तारों में प्रतिबिम्बित हो
मुस्कायेंगी अनंत आँखें,
हो कर सीमाहीन, शून्य में
मँडरायेगी अभिलाषें!

वीणा होगी मूक बजाने-
वाला होगा अंतर्धान,
विस्मृति के चरणों पर आ कर
लौटेंगे सौ सौ निर्वाण!

जब असीम से हो जायेगा
मेरी लघु सीमा का मेल,
देखोगे तुम देव! अमरता
खेलेगी मिटने का खेल!

  1. इन आँखों ने देखी न राह कहीं (Mahadevi Verma)

इन आँखों ने देखी न राह कहीं
इन्हें धो गया नेह का नीर नहीं,
करती मिट जाने की साध कभी,
इन प्राणों को मूक अधीर नहीं,
अलि छोड़ो न जीवन की तरणी,
उस सागर में जहाँ तीर नहीं!
कभी देखा नहीं वह देश जहाँ,
प्रिय से कम मादक पीर नहीं!
जिसको मरुभूमि समुद्र हुआ
उस मेघव्रती की प्रतीति नहीं,
जो हुआ जल दीपकमय उससे
कभी पूछी निबाह की रीति नहीं,
मतवाले चकोर ने सीखी कभी;
उस प्रेम के राज्य की नीति नहीं,
तूं अकिंचन भिक्षुक है मधु का,
अलि तृप्ति कहाँ जब प्रीति नहीं!
पथ में नित स्वर्णपराग बिछा,
तुझे देख जो फूली समाती नहीं,
पलकों से दलों में घुला मकरंद,
पिलाती कभी अनखाती नहीं,
किरणों में गुँथी मुक्तावलियाँ,
पहनाती रही सकुचाती नहीं,
अब फूल गुलाब में पंकज की,
अलि कैसे तुझे सुधि आती नहीं!
करते करुणा-घन छाँह वहाँ,
झुलसाता निदाध-सा दाह नहीं
मिलती शुचि आँसुओं की सरिता,
मृगवारि का सिंधु अथाह नहीं,
हँसता अनुराग का इंदु सदा,
छलना की कुहू का निबाह नहीं,
फिरता अलि भूल कहाँ भटका,
यह प्रेम के देश की राह नहीं!

  1. बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ! (Mahadevi Verma)

नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!

नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!

आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!