
रानू छोटी उम्र में ही रवींद्रनाथ ठाकुर का काफ़ी साहित्य पढ़ चुकी थी। उसके भेजे ख़त ने कवि को इतना आनंद विभोर कर दिया था कि वे उससे मिलने भवानीपुर पहुंच गए। उसी दिन अट्ठावन वर्षीय कवि से उस बालिका का एक आत्मीय रिश्ता कायम हो गया और रानू के लिए हो गए उसके प्रिय भानु दादा। यह पत्र उस खूबसूरत रिश्ते का साक्षी है।
हम गंभीरता से कृतज्ञ हों
27 अक्टूबर, 1918
शांतिनिकेतन
कल्याणीयासू,
रानू, मेरा भ्रमण समाप्त हुआ। जहां से यात्रा आरंभ की थी, फिर से वहां लौट आया हूं। सभी सलाह देते हैं कि छुट्टी मिलते ही स्थान व वायु परिवर्तन करना आवश्यक है परंतु मूल आवश्यकता है कि जहां हम हैं वहीं मन को संपूर्ण व सचेतन रूप में ढाल लें। यह जो मैदान मेरी आंखों के सामने है क्या उसे देखने की इच्छा समाप्त हो सकती है और यह जो ओस भीगी सुबह अपनी किरणों से मेरे मन को मधुपानरत भंवरे की तरह स्थान देती है, यह क्या कभी समाप्त हो पाएगा? असल बात यह है, मन के उचटने पर तृप्त करने के लिए उसे आलोड़ित करना पड़ता है। सो हमारी साधना यह हो कि ऐसा कुछ करें कि हमारा मन न उचटे। ऐसा होने पर अपने अंतर्मन की संपदा का लाभ उठा पाते हैं, बाहर के लिए छटपटाना नहीं पड़ता। हमारी जो सबसे बड़ी संपत्ति है, सबसे बड़ा आनंद, उसका भंडार यदि बाहर हो तब तो हमारे लिए बड़ी मुश्किल है, क्योंकि बाहरी राह में बाधाएं तो आएंगी ही। बाहर का द्वार अक्सर बंद होता रहेगा। बाहरी दुनिया से भीख मांगने की आदत हमें त्यागनी पड़ेगी। बाहर से बाधा मिलने पर भी इच्छानुरूप हम अंतर्मन में पूर्णता का अनुभव कर शांति पाते हैं अन्यथा स्वयं भी अशांत होते हैं और चारों ओर अशांति फैलाते हैं।
इस संसार में जो प्रेम, जो कल्याण हमने अंतर्मन में पाया है वह हमारे अंतरतम लाभ के लिए है। उसके लिए हम गंभीरता से कृतज्ञ हों। बाहरी वस्तुओं की लंबी सूची बनाकर नुक्ताचीनी करना व तड़पना कृतघ्नता होती है और इस तरह की वृथा चंचलता नितांत अंदर-बाहर को बुरी तरह प्रभावित करती है। स्थिर व शांत रहेंगे तथा मन को प्रसन्न रखेंगे, तो ही हमारा मन एक ऐसे स्वच्छ आकाश में वास करेगा, जहां अमृतलोक से आती आनंद ज्योति को हमारे मन को स्पर्श करने में रुकावट न हो। तुम्हारे प्रति भानुदादा का यही आशीर्वाद है कि तुम अपनी इच्छा को एकांत तीव्र कर चित्त को कंगालवृत्ति से दीक्षित न करो। विधाता से जो दान में मिला है उसे अंतर्मन में नम्रभाव से ग्रहण और अविचलितभाव से रक्षा करो। शांति होती है सत्य और आनंद पाने की सर्वाधिक अनुकूल अवस्था। संसार के अनिवार्य आघात-प्रतिघात तथा इच्छा के अनिवार्य निष्फलता में वह स्निग्ध शांति तुममें विक्षुब्ध न हो।
तुम्हारा भानुदादा