तमाम उम्र लफ़्जों को संजीदगी से तराशने वाले शायर थे कृष्ण बिहारी ‘नूर’…उनके लहजे में शाइस्तगी ऐसी कि फिजा महक उठे। वो दर्शन ,अध्यात्म और अपने सूफियाना मिज़ाज को ऐसे मिलाते हैं कि इन तीनों को फिर अलग करना उतना ही मुश्किल हो जाता है जितना कि पानी में कोई रंग मिला दिया जाए और फिर उसमें से पानी को अलग करना । आज इंडिया ग्राउंड रिपोर्ट की ‘रोजाना एक कविता’ श्रृंखला में आप पाठकों के बीच पेश है कृष्ण बिहारी ‘नूर’ की चुनिंदा कविताएं। कृष्ण बिहारी ‘नूर’ को पढ़ना इसीलिए भी जरुरी है क्योंकि आज उनका जन्मोत्सव है। पढ़िएगा।

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में
अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में,
मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में
मेरा ये हाल उभरती हुई तमन्ना जैसे,
वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में
जितने मौसम हैं सब जैसे कहीं मिल जायें,
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में
आईना ये तो बताता है के मैं क्या हूँ लेकिन,
आईना इस पे है ख़मोश के क्या है मुझ में
अब तो बस जान ही देने की है बारी ऐ “नूर”,
मैं कहाँ तक करूँ साबित के वफ़ा है मुझ में
2
बस एक वक़्त का ख़ंजर मेरी तलाश में है
जो रोज़ भेस बदल कर मेरी तलाश में है
ये और बात कि पहचानता नहीं मुझे
सुना है एक सितमग़र मेरी तलाश में है
अधूरे ख़्वाबों से उकता के जिसको छोड़ दिया
शिकन नसीब वो बिस्तर मेरी तलाश में है
ये मेरे घर की उदासी है और कुछ भी नहीं
दिया जलाये जो दर पर मेरी तलाश में है
अज़ीज़ मैं तुझे किस कदर कि हर एक ग़म
तेरी निग़ाह बचाकर मेरी तलाश में है
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है
हुआ करे जो समंदर मेरी तलाश में है
मैं देवता की तरह क़ैद अपने मंदिर में
वो मेरे जिस्म के बाहर मेरी तलाश में है
मैं जिसके हाथ में इक फूल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
वो जिस ख़ुलूस की शिद्दत ने मार डाला ‘नूर’
वही ख़ुलूस मुकर्रर मेरी तलाश में है
3
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,
और क्या जुर्म है पता ही नहीं।
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|
ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।
सच घटे या बड़े तो सच न रहे,
झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।
ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।
जिसके कारण फ़साद होते हैं
उसका कोई अता-पता ही नहीं।
धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून
अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं।
कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं।
उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या
ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं।
जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,
आईना झूठ बोलता ही नहीं।
अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है
‘नूर’ संसार से गया ही नहीं।
4
इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत
इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत
रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैं ने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
कोई आया है ज़रूर और यहाँ ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पे ऐ ‘नूर’ उजाला है बहुत
नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद।
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद।
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को,
किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद।
ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें,
वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद।
कहीं हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की,
छुपाता सर मैं कहाँ तुम से रस्म-ओ-राह के बाद।
गवाह चाह रहे थे, वो मिरी बेगुनाही का,
जुबाँ से कह न सका कुछ, ‘ख़ुदा गवाह’ के बाद।