इस्मत चुगताई : स्त्री मन की उड़ान को रचती कथाकार

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इस्मत चुगताई का कथा साहित्य स्त्री के आत्मविश्वास और स्वतंत्रता का पक्षधर रहा है। उनकी कहानियां और उपन्यास स्वतंत्र स्त्री की उड़ान की मजबूत नींव तैयार करती है। उनकी कहानियों को युं तो बोल्ड और स्त्री देह की चाहत की स्पष्ट स्वीकृति माना जाता रहा, लेकिन उनकी कलम तो बंधनों में कैद स्त्री मन की अकांक्षा को रेखांकित करती चलती थी। उनकी कहानी लिहाफ को भारत की पहली लेस्बियन प्रेम की कहानी भले मान लिया गया हो, लेकिन उस कहानी के माध्यम से उन्होंने उस दौर की स्त्री पीड़ा और अकांक्षा को सामने लाया। दरअसल उन्होंने उस दौर में मध्यमवर्गीय और वंचित तबके की मुस्लिम स्त्री के सुख, दुख और उसके मन की पीड़ा को सफलता से दुनिया के सामने लाया। उत्तर प्रदेश के बदायूं में आज ही के दिन 21 अगस्त, 1915 में जन्मीं इस्मत आपा ने साहित्य के साथ साथ फिल्म लेखन में भी खूब नाम कमाया। 24 अक्टूबर 1991 को साहित्य की यह अनमोल रतन हम सबसे बिछड़ गईं।आज प्रस्तुत है उनकी कहानी घूंघट। इस कहानी में उन्होंने एक सुंदर स्त्री से डरे हुए कुंठित मर्द के मन की उथल-पुथल को दर्शाया है। पेश है कहानी घूंघट-

इस्मत आपा के जन्मदिन पर विशेष

घूंघट

इस्मत चुगताई

सफेद चांदनी बिछे तख्त पर बगुले के परों से ज्यादा सफेद बालों वाली दादी बिलकुल संगमरमर का भद्दा सा ढेर मालूम होती थीं। जैसे उनके जिस्म में ख़ून की एक बूंद ना हो। उनकी हल्की सुरमई आंखों की पुतलियों तक पर सफ़ेदी रींग आई थी और जब वो अपनी बेनूर आंखें खोलतीं तो ऐसा मालूम होता, सब रौज़न बंद हैं। खिड़कियां दबीज़ पर्दों के पीछे सहमी छिपी बैठी हैं। उन्हें देखकर आंखें चौंधियाने लगती थीं जैसे इर्द-गिर्द पिसी हुई चांदी का ग़ुबार मुअल्लक़ हो। सफ़ेद चिनगारियां सी फूट रही हों। उनके चेहरे पर पाकीज़गी और दोशीज़गी का नूर था। अस्सी बरस की इस कुंवारी को कभी किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया था।

जब वो तेरह चौदह बरस की थी तो बिलकुल फूलों का गुच्छा लगती थीं। कमर से नीचे झूलते हुए सुनहरी बाल और मैदा शहाब रंगत। शबाब ज़माने की गर्दिश ने चूस लिया सिर्फ़ मैदा रह गया है। उनके हुस्न का ऐसा शोहरा था कि अम्मा बाबा की नींदें हराम हो गई थीं। डरते थे कहीं उन्हें जिन्नात ना उड़ा के लिए जाएं क्योंकि वो इस धरती की मख़लूक़ नहीं लगती थीं।

फिर उनकी मंगनी हमारी अम्मा के मामू से हो गई। जितनी दुल्हन गोरी थी उतने ही दूल्हा मियां स्याह भट्ट थे। रंगत को छोड़कर हुस्न-ओ-मर्दानगी का नमूना थे क्या डसी हुई फटारा आंखें, तलवार की धार जैसी खड़ी नाक और मोतीयों को मांद करने वाले दांत मगर अपनी रंगत की स्याही से बे तरह चिढ़ते थे।

जब मंगनी हुई तो सबने ख़ूब छेड़ा, “हाय दूल्हा हाथ लगाएगा तो दुल्हन मैली हो जाएगी।”

“चांद को जानो गरहन लग जाएगा।”

काले मियां उस वक़्त सतरह बरस के ख़ुद-सर बिगड़े दिल बिछड़े थे। उन पर दुल्हन के हुस्न की कुछ ऐसी हैबत तारी हुई कि रात ही रात जोधपुर अपने नाना के यहां भाग गए। दबी ज़बान से अपने हम उम्रों से कहा, “मैं शादी नहीं करूंगा” ये वो ज़माना था जब चू—चरा करने वालों को जूते से दुरुस्त कर लिया जाता था। एक दफा मंगनी हो जाएगी तो फिर तोड़ने की मजाल नहीं थी। नाकें कट जाने का ख़द्शा होता था।

और फिर दुल्हन में ऐब क्या था? यही कि वो बे-इंतेहा हसीन थी। दुनिया हुस्न की दीवानी है और आप हुस्न से नालां, बद मज़ाक़ी की हद।

“वो मग़रूर है”, दबी ज़बान से कहा।

“कैसे मालूम हुआ?”

जब कि कोई सबूत नहीं मगर हुस्न ज़ाहिर है मगरूर होता है और काले मियां किसी का ग़ुरूर झेल जाएं ये ना-मुमकिन। नाक पर मक्खी बिठाने के रवादार ना थे।

बहुत समझाया कि मियां वो तुम्हारे निकाह में आने के बाद तुम्हारी मिल्कियत होगी। तुम्हारे हुक्म से दिन को रात और रात को दिन कहेगी। जिधर बिठाओगे बैठेगी, उठाओगे उट्ठेगी। कुछ जूते भी पड़े और आखिरकार काले मियां को पकड़ बुलाया गया और शादी कर दी गई।

डोमनियों ने कोई गीत गा दिया। कुछ गोरी दुल्हन और काले दूल्हा का। इस पर काले मियां फनफना उठे। ऊपर से किसी ने चुभता हुआ एक सहरा पढ़ दिया। फिर तो बिलकुल ही अलिफ़ हो गए। मगर किसी ने उनके तंतना को संजीदगी से ना लिया। मज़ाक़ ही समझे रहे और छेड़ते रहे।

दूल्हा मियां शमशीर-ए-बरहना बने जब दुल्हन के कमरे में पहुंचे तो लाल लाल चमकदार फूलों में उलझी सुलझी दुल्हन देखकर पसीने छूट गए। उसके सफ़ेद रेशमी हाथ देखकर ख़ून सवार हो गया। जी चाहा अपनी स्याही इस सफ़ेदी में ऐसी घोट डालें कि इम्तियाज़ ही ख़त्म हो जाए।

काँपते हाथों से घूंघट उठाने लगे तो वो दुल्हन बिलकुल औंधी हो गई।

“अच्छा तुम ख़ुद ही घूंघट उठा दो।”

दुल्हन और नीचे झुक गई।

“हम कहते हैं। घूंघट उठाओ”, डपट कर बोले।

दुल्हन बिलकुल गेंद बन गई।

“अच्छा जी इतना गरूर!” दूल्हे ने जूते उतार कर बलग में दबाए और पाइंबाग वाली खिड़की से कूदकर सीधे स्टेशन, फिर जोधपुर।

इस ज़माने में तलाक वलाक का फैशन नहीं चला था। शादी हो जाती थी। तो बस हो ही जाती थी। काले मियां सात बरस घर से गायब रहे। दुल्हन ससुराल और मैका के दरमयान मुअल्लक़ रहीं। मां को रुपया पैसा भेजते रहे। घर की औरतों को पता था कि दुल्हन अनछुई रह गई। होते होते मर्दों तक बात पहुंची। काले मियां से पूछताछ की गई।

“वो मग़रूर है।”

“कैसे मालूम?”

“हमने कहा घूंघट उठाओ, नहीं सुना।”

“अजब गाऊदी हो, अमां कहीं दुल्हन ख़ुद घूंघट उठाती है। तुमने उठाया होता।”

“हरगिज़ नहीं, मैंने क़सम खाई है। वो ख़ुद घूंघट नहीं उठाएगी तो चूल्हे में जाये।”

“अमां अजब नामर्द हो। दुल्हन से घूंघट उठाने को कहते हो। फिर कहोगे वो आगे भी पेश-क़दमी करे अजी लाहौल वलाक़ुव्वा।”

गोरी बी के मां बाप इकलौती बेटी के गम में घुनने लगे। बच्ची में क्या ऐब था कि दूल्हे ने हाथ ना लगाया। ऐसा अंधेर तो ना देखा, ना सुना।काले मियां ने अपनी मर्दानगी के सबूत में रंडीबाज़ी, लौंडेबाज़ी, मुर्ग़बाज़ी, कबूतरबाज़ी ग़रज़ कोई बाज़ी ना छोड़ी और गोरी बी घूँघट में सुलगती रहीं।

नानी अम्मां की हालत ख़राब हुई तो सात बरस बाद काले मियां घर लौटे इस मौक़ा को ग़नीमत समझ कर फिर बीवी से उनका मिलाप कराने की कोशिश की गई। फिर से गोरी बी दुल्हन बनाई गईं। मगर काले मियां ने कह दिया, “अपनी मां की क़सम खा चुका हूं घूंघट मैं नहीं उठाऊंगा।”

सबने गोरी बी को समझाया, “देखो बनू सारी उम्र का भुगतान है। शर्म-ओ-हया को रखो ताक में और जी कड़ा कर के तुम आप ही घूंघट उठा देना। इसमें कुछ बे-शरमी नहीं वो तुम्हारा शौहर है। खुदा-ए-मजाज़ी है। उसकी फरमाबर्दारी तुम्हारा फर्ज है। तुम्हारी निजात उस का हुक्म मानने ही में है।”

“फिर से दुल्हन सजी, सेज सजाई पुलाव ज़र्दा पका और दूल्हा मियां दुल्हन के कमरे में धकेले गए। गोरी बी अब इक्कीस बरस की नौख़ेज़ हसीना थीं। अंग अंग से जवानी फूट रही थी। आंखें बोझल थीं। सांसें भरी थीं। सात बरस उन्होंने इसी घड़ी के ख़ाब देखकर गुज़ारे थे। कमसिन लड़कियों ने बीसियों राज़ बताकर दिल को धड़कना सिखा दिया था। दुल्हन के हिना आलूदा हाथ पैर देखकर काले मियां के सर पर जिन मंडलाने लगे। उनके सामने उनकी दुल्हन रखी थी। चौदह बरस की कच्ची कली नहीं एक मुकम्मल गुलदस्ता। राल टपकने लगी। आज ज़रूर दिन और रात को मिलकर सर्मगीं शाम का समां बंधेगा। उनका तजर्बेकार जिस्म शिकारी चीते की तरह मुंह-ज़ोर हो रहा था। उन्होंने अब तक दुल्हन की सूरत नहीं देखी थी। बदकारियों में भी इस रस-भरी दुल्हन का तसव्वुर दिल पर आरे चलाता रहा था।

“घूंघट उठाओ”, उन्होंने लरज़ती हुई आवाज़ में हुक्म दिया।

दुल्हन की छंगुली भी ना हिली।

“घूंघट उठाओ”, उन्होंने बड़ी लजाजत से रोनी आवाज में कहा।

सुकूत तारी है…

“अगर मेरा हुक्म नहीं मानोगी तो फिर मुंह नहीं दिखाऊंगा।”

दुल्हन टस से मस ना हुई।

काले मियां ने घूंसा मार कर खिड़की खोली और पाइंबाग़ में कूद गए। इस रात के गए वो फिर वापिस ना लौटे। अनछूई गोरी बी तीस साल तक उनका इंतजार करती रहीं। सब मर खप गए। एक बूढ़ी खाला के साथ फतहपुर सीकरी में रहती थी कि सुनावनी आई दूल्हा आए हैं।

दूल्हा मियां मोरियों में लोटपोट कर अमराज का पुलंदा बने आखिरी दम वतन लौटे। दम तूरने से पहले उन्होंने इल्तिजा की कि गोरी बी से कहो आ जाओ कि दम निकल जाये। गोरी बी खंबे से माथा टिकाए खड़ी रहीं। फिर उन्होंने संदूक खोलकर अपना तार-तार शहाना जोड़ा निकाला। आधे सफ़ेद सर में सुहाग का तेल डाला और घूंघट संभालती लब-ए-दम मरीज के सिरहाने पहुंचीं।

“घूंघट उठाओ”, काले मियां ने नज़’अ के आलम में सिसकी भरी।

गोरी बी के लरज़ते हुए हाथ घूंगट तक उठे और नीचे गिर गए।

काले मियां दम तोड़ चुके थे।

उन्होंने वहीं उकड़ूं बैठ कर पलंग के पाए पर चूड़ियां तोड़ीं और घूंघट की बजाय सर पर रंडापे का सफ़ेद दुपट्टा खींच लिया।