
लता सुनो..!!
तुमसे ही सिखा है मैंने लिपटना।
तुम्हारी प्रतानों के जैसे अंगुलियों को फसां
उसके बालों में उलझना।
धीरे-धीरे बढ़ती हुई चढ़ जाती हो तुम शिख तक
मैं भी सरकती हुई पहुंचती हूं अधरों तक
अपनी पत्तियों से ढ़क लेती हो हर एक टहनी को
जैसे मेरे खुले घने गेसू ढ़क ले पिह के तन को
लूटा देती हो अपना सारा हरा रंग
और जीवंत कर देती वो सूखा दरख़्त,
और मैं उड़ेलती हूं आंखों से प्यार का गुलाबी रंग
जो भर जाता है सिर से पांव तक
खिले हुए फूल दिखाते है तुम्हारा आलिंगन
और मेरा आलिंगन बता देता है मेरा पूर्ण समर्पण
वो सूखा दरख़्त ओढ़ के तुम्हें डूब जाता है
बसंत के से आंनद में
और मैं.. मैं आंनद में होती हूं
जब ओढ़ लेती हूं उन्हें

गीतांजलि वर्मा
प्रोफेशनल- रेकी हीलर,
टैरो कार्ड रीडर और मेडिटेशन मेंटर।
लिखना शौक है।