
‘कुछ पत्थर यहाँ गिरे, कुछ वहाँ गिरे…लेकिन इन पत्थरों को शायद पता भी न होगा कि वे हिंदुओं के सिर पर गिरे या मुसलमानों के सिर…लेकिन उन्हें चलाने वालों को ये बेशक पता था कि वे किसके सिर पर चलाए जा रहे हैं…’
किसी दंगे के बाद की पीटीसी है ये जिसे कमाल खान ने अपनी मखमली आवाज़ में यूं पेश किया था कि दंगाइयों का एक बड़ा समूह वाकई सोच में पड़ गया था। उनकी यह साहित्यमिश्रित गंगा-जमुनी तहजीब वाली भाषा अब जब खत्म हो गई, मैं उनकी सारी पीटीसी खंगाल रहा हूं जो इस उम्मीद में सहेज कर रखा था कि आने वाली पत्रकार नस्लों को जब तैयार करने का मौका मिलेगा, आपकी पीटीसी दिखाकर कहूंगा, देखो ये होता है पीटीसी का स्वरूप और यूं लिखी जाती है सधी हुई स्क्रिप्ट। उन्हें ये भी बताऊंगा
कि बिना किसी नाटक नौटँकी के खबर कैसे दिखाई जाती है। गला फाड़ बात करने की बजाय बिना तल्ख़ी और बिना उत्तेजित हुए सधी हुई भाषा में कैसे की जाती है रिपोर्टिंग। मृदुभाषी आवाज़ में बेहद शालीन और शिष्ट लहजे में कैसे की जा सकती है पत्रकारिता। और इन सबसे इतर उन्हें जरूर ये पता होना चाहिए कि कमाल खान सा बनने के लिए कितना जरूरी है किताबों का पढ़ना। जाति, धर्म , नस्ल और सरहदों से परे, हर किस्म की किताब। उर्दू अदब और हिन्दी साहित्य के इतने बड़े जानकार यूं ही नहीं बने कमाल खान। फराज से लेकर तुलसीदास तक के अध्ययन ने कमाल को ‘कमाल’ का बनाया। एक बानगी देखिए उनकी रिपोर्ट ‘अयोध्या : मर्म कोई नही जाना..’ से। इस रिपोर्ट में बेहद सधी हुई काव्यात्मक भाषा में, संयम के साथ रिपोर्टिंग करते हुए कहते हैं
“कबीर ने करीब 550 बरस पहले कह दिया था, ‘भाई रे दुइ जगदीश कहां ते आया, कहुं कौने भरमाया। अल्लाह राम करीमा केशव, हरि हजरत नाम धराया।’ यानी मेरा खुदा तुम्हारा खुदा अलग कैसे हो सकता है, ये भ्रम किसने फैलाया..”
दूसरे हिस्से में कमाल खान कहते हैं –
“गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि राम राज बैठे त्रैलोका, हरषित भए गए सब सोका। बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप विषमता खोई।” यानी राम अयोध्या के राजा बने तो तीनों लोक खुश हो गया। दुश्मनी दोस्ती में बदल गई। भेदभाव मिट गए।
और अंत हमेशा की तरह पीटीसी की वो जादुई लाइन जो ऐतिहासिक बन गई। वो शब्द जो जेहन में आज तक बसे हैं। पढ़िए इसे
अयोध्या का मतलब है जिसके साथ युद्ध ना किया जा सके, लेकिन अयोध्या हमेशा युद्ध में नजर आता है
कमाल खान अपने नाम के अनुरूप ही कमाल के थे। इतने कमाल कि गंभीर मुद्दों को भी कोई सरलता से समझ ले और अपने भीतर समेट सके। अयोध्या के मामले की हो या कोई चुनावी रिपोर्टिंग, हर रिपोर्टिंग में उनका संयमित अंदाज अचंभित करता। बतौर कलमकार, आपको अलविदा नहीं कहूंगा कमाल खान। आप जिंदा रहेंगे अपने शब्दों से, आवाज से और अपनी सोच से। कमाल की स्क्रिप्ट, कमाल का लहज़ा, कमाल का अंदाज़।ऐसा कमाल अब कौन करेगा कमाल साहब?