
कुछ घने बादल
पर्वतों से उतरकर
बरस रहे थे मैदानों में
बरखा ने तुम्हें पुकारा था
दिसंबर की शरद
अपनी बयार लेकर
लहराती हुई आई थी
शीतल हवाओं ने
पूछा था पता तुम्हारा
जेठ की गर्मी में
आम के पेड़ों पर
लगी अमियों ने
कोयलों से तुम्हे
संदेशा भिजवाया था
नदियां आ गईं थीं
उफान पर
जल की लहरें
सतह पर आरूढ़ हो
तुम्हे ढूंढ रहीं थीं
चटक पड़ी थीं
बागों में कलियां कुछ
कर रही थी कोशिशें
बिखेरकर
अपना माधुर्य
तुम्हे खींचने की
गहरे खड्डों में
कूद पड़ा था
पहाड़ से एक झरना
वो कलकल करता
गीत गा रहा था
तुम्हारे लिए
प्रकृति के
सभी अंग
सभी रंग
आए थे
तुम्हारे लिए
तुम क्यूं हरपल
बस व्याकुल थे
मेरे लिए