रोजाना एक कविता : आज पढ़ें पूर्णिमा वत्स की कविता हम मिलेंगे

0
270
A poem a day

बंद पड़ी चेतना के भीतर
समय है एक
जो साइकिल के पहियों की तरह
घूमता है
लेकिन दिखता नहीं है
तुम समय के उस छोर पर
मिलना ,जहाँ घड़ियाँ बंद पड़ी हो
नियति से दूर
आदमी चक्की है
मेरे पैरों में कभी नहीं पड़े बंधन
तुम्हारी आशा में कभी न लगे जंग
ज़िंदगी की साइकिल में
कितनी ही ताड़ियाँ उलझें, टूटे
तुम रहना बनकर समन्दर की लहर
ज्वार भाटें उठते हैं
और ख़त्म हो जाते हैं
लहरें तब भी रहती हैं
समंदर में तो ,कभी तट पर
नमी को छूते हैं साइकिल के टायर
और रेत ओढ़ लेते हैं
रेत नाप आती है शहर के कोने
वहाँ तक जहाँ तक समय है
जो कभी बंद नहीं होता
सिर्फ़ एक रोज़ लौट आता है
गोल है धरती
किसी रोज़ देखना हम मिलेंगे
धरती के उस छोर पर जहाँ समय बंद पड़ा होगा
सही ,ग़लत के विन्यास से दूर होगा सब