
सप्ताह का एक भी दिन ऐसा नहीं
जो बचा हो निष्कलंक अब
और जिसके हाथ निष्कलुष और दिल बेदाग हों
सोमवार की छाती पर
अब भी हिरोशिमा के चिथड़े बिखरे हुए हैं
वहाँ ज्यों का त्यों खड़ा है
मौत का एक स्याह और मशरूम जैसा दरख़्त
मंगलवार तो लोर्का के खून से रक्तरंजित है ही
यही वह दिन है
जब समुद्र की तरह उमड़ते हुए एक कवि को
स्पेन के राष्ट्र-भक्तों ने क्या से क्या बताकर मार डाला
और गुजरात के दंगे के कलंक से बुधवार बच नहीं सकता
जहाँ की दुर्लभ शाकाहारी प्रजाति ने
इसलिए सैकड़ों लोगों को कबाब की तरह भून डाला
क्योंकि वे पश्चिम की ओर मुड़कर किया करते हैं पूजा
मेरे पिता के जलने की गन्ध
वृहस्पतिवार के फेफड़े में फैली है तेज़ाब की तरह
मेरे भइया की चन्दन जैसी देह
वृहस्पतिवार की ही आग में अब भी राख हो रही है
30 जनवरी को जो
कहीं से भागता हुआ आया था प्रार्थना-सभा में उस दिन
उन तीन हिन्दू गोलियों से आहत और अचेत
वह शुक्रवार अब भी तड़प रहा है
थ्यानमेन चौक पर उद्विग्न और लाचार
यह बेचारा शनिवार भी
बराबरी और मैत्री और कम्यून के दावे का शिकार होकर
लहूलुहान और मृत पड़ा है
और लोकप्रिय इतवार की इस सचाई से भला कौन है अनभिज्ञ
कि प्रथम विश्वयुद्ध के मृतकों के सूखे खून से
उसका रंग और गाढ़ा हुआ है
दोपहर की विलम्बित उबासी में
खर्राटे भरता रहता है उसका कलंक…
रक्तरंजित इन सातों दिनों में टाँका हुआ मैं
मनुष्य होकर मनुष्य से हाँका हुआ मैं
तुरपाई के एक घर से
छिटककर
उस समय से
चुरा लेता हूँ एक चुटकी चुपचाप
जो अबोध बच्चों की दूधिया आँख में झिलमिलाता है
उनके शिशु आश्चर्य और उत्सुकता की उज्ज्वल धूल में निष्पाप
और पूरी दुनिया से नज़रें बचाकर
रात के निविड़ अंधकार में
जब एक चाण्डाल भी नींद की मदिरा पीकर घुलट जाता है
एक सादे पन्ने पर अवनत मैं
धीरे-धीरे गढ़ता हूँ
सप्ताह
का
आठवाँ
दिन
आठवें दिन को मैं अपना रक्त देता हूँ
आठवें दिन को निकालकर देता हूँ अपने नेत्र
आठवें दिन को अस्थि देता हूँ अपनी
आठवें दिन को अर्पित करता हूँ अपना सुंदर-असुंदर जीवन
आठवें दिन की नन्हीं हथेलियों पर
ओस में भींगे श्वेतचम्पा के कुछ फूल रखता हूँ
आठवें दिन की पलकों पर
आकाश से लबालब चुम्बन के मैं बिरवे लगाता हूँ
और आठवें दिन की निगरानी के लिए लिखता हूँ कविताएँ…
कवि
कृष्णमोहन झा