
जिस नदी से मुझे प्यार था
भले मुझे तैरना नहीं आता था
फिर भी उस नदी से मुझे प्यार था
नदी की लहरों, उसमें हिलती डुलती नावों और उछलती चांदी सी मछलियों से न जाने कैसा लगाव था
कि तट पर पहुंचते ही
बेखौफ लगा देता था छलांग
और नदी किसी प्रेमिका की तरह मुझे समेट लेती थी बाहों में
लेकिन डूबने से पहले धकेल देती थी किनारे पर
जहां होते थे मछुआरों के जाल
और रेतीली मिट्टी में उगे हरे तरबूजों की कतार
अब उस नदी के किनारे से गुजरते हुए न जाने क्यों डर लगता है
लहरें उछलती हुईं पूछती हैं तुम किस द्वीप के वासी हो?
बल खाती मछलियां कहती हैं, तुम क्यों आए हो यहां?
खाली पड़ी नाव मेरे बैठने से पहले रस्सी छुड़ाकर बहती चली जाती है
मानों मैं कोई पराया हूं उसके लिए
क्या उस नाव को याद नहीं है
कि उस पर बैठी प्रेमिका का हाथ थामे हुए मैं हुआ था नदी पार
आज ये क्या हुआ
कि नदी पूछ रही है मेरा पता-ठिकाना
कौन है जो नदी में घोल गया नफरत का विषाक्त केमिकल?
मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मैं नदी में लगाऊंगा छलांग तो डूब जाऊंगा
जबकि मैं नदी से इतना प्यार करता हूं
-गुलज़ार हुसैन