
याद की गीली लकड़ियों को जो सुलगाता है
कौन है भीगे हुए मन के दिसम्बर के सिवा
आँखें जलती ही चली जाती हैं लेकिन देखो
ये धुँवाती हुई शब आगे नहीं बढ़ती ज़रा
कँपकँपाती है मेरी रूह जिसे है दरकार
आँच मद्धम जो तेरी साँस ही के है सदक़े
एक ही ख़ाने में रक्खे हुए थे याद और दुख
किस अनाड़ी ने मिलाएँ हैं मआ’नी इनके
इनको अलगाने में सब रातें गुज़र जाती हैं
इनको अलगाने में सब दिन भी ज़ियाँ होते हैं
मेरी बीनाई को ढूँढो यहीं तो रक्खी थी
अव्वल-अव्वल हुआ करते थे कितने दोस्त
कितने हमदर्द हुआ करते थे अव्वल-अव्वल
क्या हँसी थी कि जो बिखरी हुई थी चारों तरफ़
क्या हुआ है जो समाअ’त है ये आहों से घिरी
तुम इन आवाज़ों के माथे पे धरो इक बोसा
एक बोसा जो इन्हें शांत बहुत शांत करे
मन के सब चाँद तवाफ़ी हैं तेरे जानेमन
भूखे-प्यासे जो तेरे गिर्द हैं आवारा-से
प्यार पर ज़ोर भला किसका चला करता है
जानेमन मेरा कहा कौन यहाँ सुनता है
तुमसे हो पाए तो तुम ही अब इन्हें बहलाना
शाम से पहले घर आ जाएँ ज़रा समझाना