Begusarai: जी टैग से मंसूरचक की प्रसिद्ध मूर्तिकला को मिलेगी राष्ट्रीय पहचान : राकेश सिन्हा

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बेगूसराय:(Begusarai) कभी बिहार और बेगूसराय की अतुलनीय पहचान रही मंसूरचक की मूर्तिकला आज विलुप्त होने के कगार पर है। इसे पुनः संरक्षित और संवर्धित किए जाने की आवश्यकता है। जिससे बेगूसराय की यह पहचान मिट नहीं सके।

यह बातें राज्यसभा सांसद प्रो. राकेश सिन्हा ने मंसूरचक मुख्य बाजार में मूर्तिकला को जी टैग में शामिल कराने के लिए आयोजित कार्यक्रम के दौरान कही। उन्होंने कहा कि लकड़ी या सीमेंट की बनी मूर्तियां कहीं ना कहीं पर्यावरण को प्रभावित करती है। लेकिन, मिट्टी की बनी मूर्तियों से कोई नुकसान नहीं होता है।

उन्होंने कहा कि जी टैग मिलने से यहां की अद्भुत कला को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलेगी। संसद के आगामी सत्र में मूर्तिकला और कलाकारों की दुर्दशा को राज्यसभा में उठाकर इनकी दशा और दिशा को सुधारने की सार्थकता पहल की जाएगी। राकेश सिन्हा ने घर-घर जाकर मूर्तिकला देखी तथा कलाकारों को सम्मानित भी किया।

मौके पर पूर्व विधायक श्रीकृष्ण सिंह, वरिष्ठ भाजपा नेता संजीव सिंह, नवीन कुमार, मंडल अध्यक्ष मनोज कुमार गुप्ता, युवा सशक्तिकरण संघ के जिलाध्यक्ष अमीत कुमार गुप्ता, बछवाड़ा विकास मंच के अध्यक्ष सरोज कुमार चौधरी एवं गोविंदपुर पंचायत-दो के मुखिया राममूर्ति चौधरी आदि ने मूर्तिकारों की जटिल समस्याओं को शीघ्र दूर करने की जोरदार मांग किया।

उल्लेखनीय है कि मंसूरचक कभी मूर्तिकला के लिए देश भर में प्रसिद्ध रहा है। मंसूरचक की टेरीकोटा मूर्तिकला आज भी चर्चित है। लेकिन आधुनिकता के चकाचौंध ने प्लास्टिक एवं अन्य विदेशी मूर्तियों ने यहां के कला को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके कारण अब नई पीढ़ी इस कला को बचा पाने के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। जो पुराने कलाकार हैं, वह आज भी पूरी तल्लीनता से मूर्ति निर्माण करते हैं।

यहां के बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी कलाकार हैं। इनकी कलात्मकता, रंगों की समझ, मिट्टी की परख तथा टेरीकोटा कला का बेजोड़ नमूना मंसूरचकिया शैली को विशिष्ट बना देती है। कभी इसी बलान नदी के तट पर बसे खेतों में अंग्रेजों ने नील की खेती कराई और अपने शोषणकारी रवैया से मंसूरचक वासियों के जीवन को फीका कर दिया था। लेकिन आज यहां घर-घर में कला की खेती होती है।

मंसूरचक के मूर्तिकारों की पहचान बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश से लेकर नेपाल तक थी। एक समय था जब मिट्टी से निर्मित गणेश-लक्ष्मी, शंकर, पार्वती, सरस्वती, दुर्गा, काली, राम-जानकी, छठ माता की मूर्ति के अलावा तरह-तरह के खिलौने एवं मुखौटे की मांग ज्यादा हुआ करती थी। कारीगरों को सम्मान के साथ अच्छा पारिश्रमिक भी मिलता था।

पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, जम्मू-कश्मीर से लेकर नेपाल तक के व्यापारियों का तांता लगा रहता था। एक तरह से कहें तो मंसूरचक गांव, गांव कम जादू नगरी ज्यादा है। इसके बाजार के सड़क के दोनों किनारे विविध प्रकार की मूर्तियां, पक्की मिट्टी से निर्मित रंग-बिरंगे खेल-खिलौने यहां की लोकप्रिय कला और टेरीकोटा कला के अद्भुत चमत्कार हैं। दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के समय ये कलाकार विभिन्न राज्यों में जाकर अपनी कलात्मकता दिखाते हैं।

लेकिन, सरकारी उपेक्षा और बाजारवाद का यही हाल रहा तो जल्द ही यह कला विलीन हो जाएगी। मिट्टी के कलाकारों की जादू नगरी कहा जाने वाला मंसूरचक उदास हो जाएगा। पूंजी का अभाव, बाजार की कमी, प्लास्टिक उद्योग के बढ़ते प्रभाव और सरकारी सहयोग नहीं मिलने के कारण सैकड़ों वर्ष पुरानी प्रसिद्ध मूर्ति निर्माण कला की परंपरा दम तोड़ रही है। बच्चों के लिए तरह-तरह मुखौटा बनाने वाले मूर्तिकार आज बदहाल हैं। हालांकि, राकेश सिन्हा के आने से अब इनकी उम्मीदें कुछ जगी जरूर है।