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Homepoemरोजाना एक कविता : आज पढ़िए अमित बृज की कविता 'शाश्वत प्रेम'

रोजाना एक कविता : आज पढ़िए अमित बृज की कविता ‘शाश्वत प्रेम’

सुनो प्रिये, मैं नहीं जानता
क्या दे पाऊंगा तुम्हें
जीवन भर का दर्द
सिसकती टीस
जमाने की उलाहना
एक अनचाहा दाग
एक अपराधबोध
पता नहीं मैं क्या दे रहा हूं
क्या दे पाऊंगा

शायद इसीलिए खोल नहीं पाता
मन की गांठे

काश आसान होता
तुमसे प्रेम का व्यक्त कर पाना
काश मोह होता देह का
पर प्रिये, मैं समझता हूं
उबाऊ होता है देह का मिलना
और नश्वर भी
रूह अनश्वर है
और शायद स्थाई भी

प्रिये, मैं हमेशा से सोचता रहा हूं
प्रेम की पराकाष्ठा तभी तक होती है
जब तक अभिव्यक्त नहीं होती
सच यह है कि तुम्हें पाकर नहीं पाना है मुझे
तुम्हे खोकर पाना चाहता हूं
ताकि जन्मों तक
यूं ही जुड़े रहे हम एक-दूसरे से
बिना किसी अभिव्यक्ति के

तो प्रिये, ऐसा करते हैं
स्थगित करते हैं प्रेम की अभिव्यक्ति
इस जन्म के लिए
पुनर्जन्म संभव हुआ
तो मिलेंगे तुमसे
और करेंगे इजहार
लेकिन तुम कर देना अस्वीकार

ताकि मेरे भीतर बचा रहे प्यार
तुम्हारे लिए हर बार

ताकि प्रेम जिंदा रहें सदियों तक
तुममें
मुझमें
और नफरत और प्रेम के
अजीब घोल से भरी
इस दुनिया में

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