अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का कोना : तो सोचती हूं कि काश…

0
133

देर रात तक हम बात करते रहे… तुम और मैं दोनों ही भावनाओं से भरे हुए थे। हमने एक-दूसरे से कहा कि तुम्हारा होना मुझे पूरा करता है और यह जो जीवन है वह तुम्हारी बदौलत सही दिशा में बढ़ रहा है। रात में आंधी आई और खुली खिड़कियों से धूल कमरे में भर गई। प्रेम से अभिभूत तुम झाडू लगाने लगे… मैंने देखा कि तुम सही तरह से झाडू नहीं लगा रहे हो। मैने कहा यह कैसे कर रहे हो..! तुम बिगड़ गए। इसके बाद तुमने पोछा लगाया, पर कई जगह पर पानी छोड़ दिया। तुम तो जानते ही हो न कि अगर कोई काम सलीके से न हो तो मुझे खीज होती है, मैंने तुम्हें जमकर खरी-खोटी सुनाई। तुम भी चुप न रहे और तुमने कहा कि तुम कमी किसी का भला कर नहीं सकती। क्योंकि तुम सकारात्मक नहीं हो और बिना सकारात्मकता के प्रेम संभव नहीं है। जैसे यदि आप कोई बेहतरीन किताब लिखते हैं और कोई उसकी छोटी-छोटी गलतियों को अंडरलाइन करके आपको सदा के लिए कोई किताब न लिखने जितनी निराशा से भर सकता है. जबकि सकारात्मकता घटिया किताब की छोटी-छोटी खूबियों को अंडरलाइन करके आपको एक बेहतरीन किताब लिखने के लिए प्रेरित कर सकती है। आज जब तुम मुझसे बहुत दूर हो, इतना कि तुम्हें देख तो सकती हूं, पर छू नहीं सकती! तो सोचती हूं कि काश…

इस कॉलम के लिए आप भी लिख भेजिए मन में ठहरी हुई कोई मधुर याद, कोई बात, डायरी का कोई पन्ना या भूली-बिसरी-सी पाती।

हमारा पता : indiagroundreport@gmail.com

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here