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नजरूल इस्लाम का पत्र नरगिस के नाम

विद्रोही कवि के रूप में लब्ध प्रतिष्ठ बांग्लादेश के राष्ट्रकवि काजी नजरूल इस्लाम को बांग्ला साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए बड़े सम्मान के साथ याद किया जाता है। नरगिस खानम के साथ उनका विवाह होना तय था, जो हो न सका, लेकिन नरगिस के मन में वह हमेशा बने रहे। काफी बाद में नरगिस ने जब उनको ख़त लिखा, तो नजरूल का यह जवाब आया

किस अधिकार से तुमको रोकूंगा

106, अपर चितपुर रोड,
ग्रामोफोन रिहर्सल रूम,
कलकता 1-7-39

कल्याणीयासु

तुम्हारा पत्र मिला उस दिन नववर्षा के नवघनसिक्त प्रभात में मेघ मेदुर गगन में अशांत धारा में पानी बरस रहा था। पंद्रह बरस पहले ऐसे ही एक आषाढ़ में ऐसी ही वारि-धारा का प्लावन उतर आया था शायद वह तुम्हें भी याद हो । आषाद के नए मेघपुंज को मेरा नमस्कार। यही मेघदूत विरही यक्ष की वाणी लेकर गया था कालिदास के युग में, रेवा नदी के तीर मालविका के देश में, उसकी प्रिया के पास इसी मेघपुंज की आशीर्वाणी मेरे जीवन में ले आई चरमपीड़ा की राशि। इसी आषाढ़ में मुझे कल्पना के स्वर्गलोक से खींचकर वेदना के अनंत स्रोत में डुबो दिया। ठहरो, तुम्हारी शिकायत का जवाब दूं। तुम विश्वास करो कि मैं जो लिख रहा हूं वह सच है। लोगों के मुंह से सुन कर अगर मेरे बारे में सोचो, तो मुझे गलत समझोगी इसके सिवा वह झूठ है। तुम्हारे साथ मेरा कोई वैर नहीं है – यह मैं बहुत ईमानदारी से कहता हूं। मेरे अंतर्यामी जानते हैं कि तुम्हारे लिए मेरे हृदय में ही कितना गहरा घाव है, कितनी असीम पीड़ा है। किंतु उस आग की पीड़ा में मैं ही झुलसा हूं उससे तुम्हें किसी दिन जलाना नहीं चाहा। तुम्हारे इस अग्नि के पारसमणि दिए बिना में अग्निवीणा नहीं बजा सकता था। मैं ‘धूमकेतु’ का आश्चर्य लेकर प्रकट न हो पाता। तुम्हारा जो सुविद रूप मैंने अपनी किशोरवयस् में पहले-पहल देखा था, जिस रूप को मैंने अपने जीवन के सर्वप्रथम प्रेम की अंजलि दी थी वह रूप आज भी स्वर्ग के पारिजात में पराग की तरह मेरे हृदय में चिर अम्लान ही है। अंतर की आग बाहर के उस फूलहार को स्पर्श नहीं कर पाती।

….तुम रूपवती हो, धनी हो, गुणवती हो, इसीलिए तुम्हें बहुतेरे उम्मीदवार मिल जाएंगे – तुम अगर स्वेच्छा से शादी करना चाहती हो, तो मुझे उसमें कोई आपत्ति नहीं है। मैं किस अधिकार से तुमको रोकूंगा या आदेश दूंगा? निठुर नियति ने सारे अधिकारों से मुझे छुटकारा दे दिया है। तुम्हारा आजकल क्या रूप है, पता नहीं। मैं तुम्हारी उसी किशोरी मूर्ति को जानता हूं, जिसे देवी की मूर्ति की तरह अपनी हृदय वेदी पर अनंत प्रेम, अनंत श्रद्धा के साथ प्रतिष्ठित करना चाहा था । उन दिनों की तुमने वह वेदी ग्रहण नहीं की। पत्थर की देवी की तरह ही तुमने वेदना की वेदी – पीठ चुन ली… जीवन भर मेरी पूजा-प्रेम वहीं चलता रहा। आज कि तुम मेरे निकट मिथ्या हो, व्यर्थ हो, इसीलिए उसे पाना नहीं चाहता। पता नहीं, शायद वह रूप देखकर वंचित होऊंगा, अधिकतर पीड़ा मिलेगी इसीलिए उसे अस्वीकार करता रहा हूं।

आज जीवन के अस्त होते दिन की अंतिम किरण को पकड़कर भाटा के बहाव में चल रहा हूं। उस पथ से लौटाने की तुम्हारी क्षमता नहीं है। अब उसकी कोशिश मत करो। तुम्हारे लिए लिखी मेरी यह चिट्ठी पहली और अंतिम रहे। जहां भी रहूं, विश्वास करो, मेरा अक्षय आशीर्वाद – कवच तुम्हारे चारों ओर रहेगा। तुम सुखी होओ, शांति पाओ – यही प्रार्थना है। मुझे जितना बुरा समझती हो मैं उतना बुरा नहीं हूं – यही मेरी आखिरी सफाई है । इति ।

नित्य शुभार्थी नज़रुल इस्लाम

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