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कविता : इस घर में

इस घर में मौजूद है
सैकड़ों वर्ष पहले की गई
प्रार्थनाओं की पवित्रता

इस घर में
नरभक्षियों के खिलाफ उठाए गए
खड्ग का संकल्प सुरक्षित है

इस घर में बची है
नदियों की खोज में की गई
अनगिनत यात्राओं की महक

मनुष्य बने रहने का संघर्ष जीवित है
इस घर में
इसलिए जीवित है हमलोग

अंतराल

उसके ललाट का चंदन
घाव के निशान में बदल रहा था
उसकी देह का जनेऊ बन रहा था फांस
उसकी राधा देह बेच रही थी
और उसका जीवन बर्फ की तरह गल रहा था…
विद्यापति को देखा मैने
राजकमल चौधरी में बदलते हुए।

बुद्ध का आधुनिक संस्करण

जब अन्न के अभाव में
राहुल को कपिलवस्तु में बिलखता हुआ पाया
जब यशोधरा की देह दिखी
वस्त्र बिना उधार
तब समझ में आया
कि किस मुक्ति की खोज में
चांदनी चौक में भटकते फिरते हैं
हमारे समय के बुद्ध

कृष्ण मोहन झा
जन्म10 अप्रैल 1968
प्रमुख कृति : समय को चीरकर वर्तमान में असम यूनिवर्सिटी में कार्यरत

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