
साहित्यकार संतराम गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में बी०ए० के छात्र थे। एक दिन भोजन कक्ष में भोजन करने बैठे और एक साथी से जान-बूझकर छू गये। वह भी भोजन कर रहा था। बस फिर क्या था, वह छात्र तो आगबबूला हो उठा। अपनी थाली वहीं छोड़ते हुए बोला-“संतू मुझसे छू गया है। मेरी थाली का खर्च इसके नाम लिखना। दुष्ट कहीं का।” संतराम ने अब तो उसकी बांह पकड़ ली और वहीं बिठाकर कहा-“जरा अपनी यह क्रिस्टल टोपी उतारकर उल्टी रख।” उसने टोपी उतारी तो पूछा-“यह इसके भीतर पट्टी किसकी है?” वह बोला-“खाल की है।” “तो क्या मैं इस टोपी में लगी मरी हुई खाल से भी ज्यादा अछूत हो गया हूं, जो तू थाली छोड़कर भागता है? इस टोपी को तो सिर पर बिठाए घूमता है। जाओ, अब छोड़ दो थाली और भूखे मरो। मैं इस थाली का खर्च हर्गिज चुकाने वाला नहीं। भोजन में छूत-अछूत नहीं सात्विकता देखी जाती है। यदि भोजन सात्विक होगा तो तुम्हारे विचार भी सात्विक होंगे।” वह छात्र फिर भोजन करने बैठ गया। बाद में दोनों के बीच गहरी मित्रता हो गयी। संतराम का मित्र समझ गया था कि दरअसल भोजन की महत्ता उसके गुणों से है, न कि किसी के छूने या न छूने के कारण।