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‘ह्यूमन राइट’ से पहले मैं ‘पेट राइट’ के लिए लड़ना चाहती हूं

इधर लोग कहते हैं क‍ि दुन‍िया जाल‍िम है और दर्द से भी भरी है..! पर वास्‍वव‍िकता यह है क‍ि दुन‍िया सुंदर से सुंदरतम हो रही है, मानवता बेहतर और बेहतरीन की द‍िशा में बढ़ रही है, चौंक‍िए म‍त यही सच है, इसके ल‍िए आपको जरा ठहर कर इत‍िहास में झांकना होगा। जहां नरसंहार और सामंतवाद के अत्‍याचार भरे पड़े हैं… खैर, आज मैं आपको म‍िला रहा हूं उत्‍तराखंड की रहने वाली द‍िव्‍या रावत (30) से ज‍िन्‍होंने बिना क‍िसी संसाधन के हौसलों के बल पर शुरू क‍िए गए अपने काम से आज लाखों लोगों का जीवन बेहतर कर द‍िया… और उनकी आंखें में करोड़ों लोगों का जीवन बदलने का सपना पलता है। उनका जीवन देख कर आप कह उठेंगे जीना इसी का नाम है…

दिव्या रावत का जन्म उत्तराखंड के चमोली जिले के छोटे से गांव कोट कंडार में हुआ। अपने पिता की 5वीं संतान दिव्या ने बचपन से ही अपने आसपास के लोगों को जीवन से जूझते हुए देखा था। दिल्ली में सोशल वर्क में मास्टर्स करने के दौरान उनके मन में अपने गांव के लोगों के लिए कुछ करने की बात आई। पर कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उन्होंने दिल्ली में ह्यूमन राइट और चाइल्ड राइट के लिए काम करना शुरू किया। 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ में वे अपने लोगों की मदद के लिए घर लौटीं। वहां के हालात बहुत खराब थे। 

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थोड़े-थोड़े पैसे के लिए लोगों को जूझते हुए देखा


दि‍व्‍या बतातीं हैं, “मैंनेबअपने लोगों को थोड़े-थोड़े पैसे के लिए होटलों में, ढाबों पर चाय की दुकानों पर काम करते देखा था। प्राकृतिक आपदाओं के चलते खेती अक्सर बर्बाद हो जाया करती थी, ऐसे में लोगों ने खेती बंद कर मजदूरी के लि‍ए शहरों का रुख किया था। गांव खाली हो रहे थे। मैंने देखा कि अपने खेत होते हुए भी हमारे लोग शहरों में 5 से 8 हजार रुपए के ल‍िए हाडतोड़ मेहतन करने पर मजबूर हो रहे हैं। मैंने तय किया कि, मैं इनके लिए कुछ करूंगी — कुछ ऐसा कि इन्हें किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े। 2013 में मैं पूरी तरह से द‍िल्ली छोड़कर गांव आ गई। इस पर मेरे हितचिंतकों को लगा कि मैं अपना अच्छा-खासा करियर छोड़कर यहां आकर अच्छा नहीं कर रही हूं। पर मुझे इस बात की परवाह नहीं थी। इसका मुख्य कारण थे मेरे पापा, वे मुझे हमेशा मजबूत इरादे वाली युवती के रूप में देखना चाहते थे। उन्होंने हम पांचों भाई-बहनों को एक समान पाला-पोसा।”

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जैसा तापमान होता है, वैसा मशरूम उगाते हैं

दिव्या करना तो बहुत कुछ चाहती थीं, पर कैसे किया जाए यह समझ में नहीं आ रहा था, उन्होंने मार्केट का सर्वे किया तो पाया कि किसान वर्ष भर मेहनत कर के जो आलू, प्याज और टमाटर जैसी फसलें उगाते हैं वह 10 से 20 रुपए किलो बिकती है। इस पर भी प्राकृत‍िक आपदाओं की मार किसान को पूरी तरह से बर्बाद कर उसे गांव से पलायन करने को मजबूर कर देती है। इसी दौरान दिव्या को पता चला कि मशरूम की खेती से किसानों को ज्यादा लाभ हो सकता है। द‍िव्‍या बतातीं हैं क‍ि “मैंने मशरूम की खेती करने का फैसला क‍िया, क्‍योंक‍ि मशरूम जर, जमीन और जलवायु की खेती नहीं है, यह खेती है तापमान की। इसके चलते हम जैसा तापमान होता है, वैसा मशरूम उगाते हैं। और इसकी कीमत भी बहुत अच्‍छी होती है। और फिर क्या दिव्या इसके विषय में जानकारी जुटाने लगीं।वे बतातीं है, “मैंने पाया क‍ि मशरूम महंगा है, इससे किसानों को ज्यादा पैसे मिल सकते हैं। इसकी खेती इन हाऊस की जाती है, जिसमें आंधी, तूफान, बाढ़ और जंगली जानवरों द्वार फसल नष्ट करने का डर नहीं होता, तो मैंने यही करने की ठानी।’ द‍िव्या ने हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड से मशरूम उगाने की ट्रेनिंग ली। रिसर्च की और उन मशरूमों के बारे में जानकारी जुटाई, जो उत्तराखंड के मौसम में अच्छी पैदावार दे सकते हैं। इसके बाद द‍िव्‍या दुन‍िया के कई देशों में गई और मशरूम उगाना सीखा और मैं उगाने लगी। पहले तो लोगों को इनके काम पर विश्वास नहीं हुआ, पर जब खेत से पैसे आने लगे, तो राज्य और देश के विभिन्न इलाकों से लाखों किसान द‍िव्या से मशरूम की खेती करना सीख कर अपने जीवन को बेहतर बना रहे हैं।

मुशरूम उगाने के खर्च को क‍िया कम


दिव्या बतातीं हैं, “इससे पहले भी लोग मशरूम की खेती करते थे, पर वह बहुत खर्चीला था, इसमें लाखों रूपए खर्च होते थे, जो आम क‍िसान के लिए संभव नहीं था। उन द‍िनों स‍िर्फ बड़ी कंपन‍ियां मशरूम का बीज बेचतीं थीं, वे छोटे क‍िसानों को बीज देतीं ही नहीं थीं। ऐसे हमने अपनी लैब बनाई और वहां से बीज आम क‍िसानों को देना क‍िया। लोग मशरूम की फैक्ट्री लगा रहे थे, जबकि मैंने फैक्ट्री हटाकर किसानी शुरू की। मैंने अपने तरीके से काम शुरू किया तो लाखों रुपए के स्थान पर 20 हजार के खर्च पर कार्य शुरू हो गया। आज हम पांच, दस और 15 हजार के खर्च पर मशरूम उगाना शुरू कर सकते हैं। आज आम क‍िसान भी अलग-अलग तापमान पर सालभर मशरूम उगा रहे हैं। इसमें बहुत-सी प्रजात‍ियां हैं, जिनकी कीमत 100 रुपए प्रति किलो से लेकर एक लाख रुपए प्रति किलो तक होती है। अभी मैं कियाजड़ी नामक मशरूम उगाती हूं, जिसकी कीमत 3 लाख रुपए प्रति किलो ग्राम है। लोग मुझे कहते हैं, यह कहां का सोशल वर्क है, तो मेरा जवाब है, “मैं ‘ह्यूमन राइट’ से पहले ‘पेट राइट’ के लिए लड़ना चाहती हूं। ये तो वही बात हुई पानी बह रहा है और आप पोछा लगा रहे हैं – जरूरत है नल बंद करने की।” आज द‍िव्‍या 40 लोगों को सीधे रोजगार द‍िया है। देश भर के सात हजार क‍िसान उनसे सीख कर खेती कर रहे हैं। हर माह हम सात से आठ हजार क‍िलो बीज क‍िसानों को देते हैं। इसकी मदद से क‍िसान लगभग 70 से 80 लाख रुपए की मशरूम उगाते हैं। 

सारी समस्याओं की जड़ है भूख और गरीबी


द‍िव्‍या कहतीं हैं, “मुझे लगता है कि देश में सारी समस्याओं की जड़ भूख और गरीबी है। जिस दिन हम अपने किसानों, गरीबों को आर्थिक रूप से मजबूत कर देंगे तब हमें बहुत-सी समस्याओं से खुद-ब-खुद निजात मिल जाएगी। मैंने उत्‍तराखंड के बाद महाराष्‍ट्र में काम शुरू क‍िया है। अभी हमने पूणे और सातारा में काम शुरू क‍िया है। हम क‍िसानों के साथ म‍िलकर काम कर रहे हैं। हम ज‍िस गांव में जा रहे हैं, वहां गांव की सारी समस्‍याओं को दूर करना मेरा मकसद है। मैं देश से गरीबी मिटाना चाहती हूं। और अपनी अंतिम सांस तक मैं लोगों को आर्थिक रूप से सबल करने में जुटी रहूंगी।”

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