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रोजाना एक कविता : आज पढ़ें अनु चक्रवर्ती की कविता अंतिम स्पंदन

समस्त जीव जालों के
अंतिम स्पंदन तक बची रहे अवनि में
पसीने !
प्रेम एवं अश्रुओं पर सकल प्राणियों की अटूट आस्था !

काश ! कभी न छूटे कवि के
हाथों से उसकी कलम
और सुदूर अंचल में ध्यानस्थ
प्रेयसियों के मन से उनके प्रेमी

पंछियों की चोंच में दबे रहें
तिनके घरौंदों के
गिलहरियां छिपाती रहें सदैव
मेदिनी के तल में अन्न के दाने

चींटियों में बची रहे सुमति
मधुक्खियों में संगठन
सागर की लहरों से अवशोषित होता रहे
नीर बादल के बून्द बनने तक

बच्चों के हिय में बची रहे मासूमियत
और किताबों में ऊंगलियों के स्पर्श
सुमन में सुंगन्ध बची रहे
आसमान पर सितारे

पीहर में बची रहे बेटियों की आवाजाही
ससुराल में बहुओं की प्रतिष्ठा
कन्याओं में बची रहे जीवटता
और पुरुषों में विनयशीलता

जंगल में हरियाली बची रहे
चूल्हे में आग
खेतों में लहलहाते फसल
और थाली में रोटी बची रहे

हृदय में करुणा बची रहे
आंखों में पानी
जगत में परोपकार
और सहयोग की भावना बची रहे

फलों के प्रकोष्ठों में रस
वनस्पतियों में ताज़गी
दिनकर में रश्मियां
और मारुत में बची रहे शीतलता

पीपल और बरगद के तले
दीये की रौशनी बची रहे
डाकिए के हाथों में चिट्ठियां
जिससे अधरों पर मुस्कान बची रहे

इसी तरह बची रहे अवनि में
पसीने ! प्रेम एवं अश्रुओं पर
सकल प्राणियों की अटूट आस्था …

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