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रोजाना एक कविता: पढ़िए अनिता कपूर की कविता नहीं भूली हूँ

नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
पिताजी का बनाया वो छोटा मकान
कुछ ऋण ऑफिस से
बाकी गहने माँ के काम आए
मेरे लिए वो ताजमहल था
सफेद न सही लाल ही सही
छत पर सोने का मज़ा तो वैसे भी
ताजमहल में कहाँ आ सकता था
नहीं भूली हूँ आज तक वो मिट्टी की सोंधी महक
जब हम शाम को छत पर पानी उड़ेलते
तपिश कम हो तो रात को छत पर सोएँगे
छत की सफाई ने हमें जैसे टाइम मैनिज्मन्ट सिखा दिया था
स्कूल जाना, फिर होमवर्क करना, खेलना, खाना
और फिर रात को ऊपर सोने के लिए
छत पर छिड़काव, वो माटी की भीनी-भीनी खुशबू
बिछौना व छत वाले पेड़ के नीचे मस्ती
आसमां में चमकीले तारे
चाँद को देखना, और फिर सोना
नहीं भूली हूँ आज तक, वो मेरे शहर की सुबह
चिड़ियों का चहचहाना
मुर्गे की बांग, माँ का नीचे से आवाज़ें लगाना
मेरा उस सोंधी खुशबू में लिपटे-लिपटे बड़े हो जाना
खुशबू मे तैर कर सात समुंदर पार आना
यहाँ खुशबू के तो पंख निकल आए थे
मैं जब चाहे उड़ कर उस पुराने मकान
को छू आती थी
वो छुअन वाले मोह के धागे ही तो थे
जिन्होंने मुझे मेरे मकान से बांधे रखा
इसीलिए नहीं भूली हूँ मैं आज तक
अपने बचपन का वो पहला मकान
जिसकी यादें दिल में सीमेंट बन गई है
और दिल वही मकान बन गया है

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