India Ground Report

रोजाना एक कविता : आज पढें अमित बृज की कविता नज़्म सी तुम

नज़्म सी तुम
नज़्म सी तुम

तुम्हारी आँखें
किसी को ब्लूबेरी सी लगती
किसी को मकोय सी

तुम्हारे चेहरे में किसी को उम्मीदों का समन्दर दिखता
किसी को उदास सा एक सूखा मंजर

कोई दीवाना था तुम्हारे उर्दू सी प्यारी रुखसार का
और उस नुक्ते का भी जिसे संभवत: इसीलिए चिपका दिया गया
ताकि बची रहे ताजिंदगी काली नज़र से

तुम्हारे सलेटी रंग के गेसू
भिगो के झटक दो तो
आसमान टूटकर बरस उठे
उठा कर बांध लो तो
लाखों ख़याल बंध जाए उससे

कुछ ज्यादा हो गया न
तुम्हारी खूबसूरती के कसीदे
अदाओं के किस्से

सुनो,
मैं ये सब लिखना नहीं चाहता
और लिखूं भी तो कैसे
इस डर से कि कहीं जी न भर जाए
मैंने तुम्हें जीभर देखा ही नहीं कभी

सच कहूं,
तुम एक सादी सी नज़्म हो
जिसमें कोई पेच-ओ-ख़म
जितनी सरल, उतनी सहज
एक ऐसी नज़्म
जिसे मैं ताउम्र सुनना चाहता हूं

Exit mobile version