India Ground Report

world women’s day: रोजाना एक कविता में पढ़ें अपने अंत:पुर से बाहर आती स्त्रियों की कविता

स्त्री-विमर्श भारतीय समाज और साहित्य में उभरे सबसे महत्त्वपूर्ण विमर्शों में से एक है। स्त्री-जीवन, स्त्री-मुक्ति, स्त्री-अधिकार और मर्दवाद और पितृसत्ता से स्त्री-संघर्ष को हिंदी कविता ने एक अरसे से अपना आधार बनाया हुआ है। आज world women’s day पर प्रस्तुत है ऐसी कविताएं जो स्त्री-स्वर को ही समर्पित है, पुरुष भी जिसमें अपना स्वर प्राय: मिलाते रहते हैं।

world women's day:

हे राम ! तुमको प्रणाम !
आज्ञा हो तो , कुछ कहूँ ।
कोलाहल अन्तर्मन का,
सबसे पहले कोटि धन्यवाद ,
डालने को प्राण –मुझ पाषाण में,
पर क्या पूछ सकती हूँ
कुछ प्रश्न ?
क्योंकि प्रश्न पूछना तो दूर,
मन की कहना भी अक्षम्य है,
स्त्री के लिये ?

तुम ही बताओ अपराध मेरा,
क्या जानती थी मैं ?
इन्द्र ने बना स्वामी का वेश,
किया जब, प्रणय निवेदन,
तो भला कैसे ठुकराती ?
इन्द्र की छलना से थी मैं अनभिज्ञ,
वही किया मैंने,
जो था पत्नी का धर्म,
ऋषि गौतम के आगमन पर, जब खुला भेद,
तो क्यों मिला श्राप मुझे,
पत्थर हो जाने का,
तुम ही बताओ राम,
क्या था मेरा इतना कसूर,
कि ना जान सकी,
इन्द्र का छल ?
ना वास्तविक भर्ता को,
या ना ठुकरा पाई, प्रणय निवेदन,
या प्रणय इच्छा की पूर्ति,
बन गया अभिशाप,
तुम ही बताओ उद्धारक राम,
क्यों स्त्री ही छली जाती है, हर बार ?
क्या उसका रूपवान होना,
है उसके लिये अभिशाप ?
और रूपहीन होना भी तो,
नहीं कम किसी अभिशाप से,
तो दोनों ही स्थितियों में,
श्राप की भागी, स्त्री ही क्यों ?
किसने दिया अधिकार पुरुष को,
कि करे निर्णय,
कि स्त्री को क्या करना है ?
कब हँसना है, कब रोना है ?
कब इच्छा- पूर्ति करना है ?
कब, कैसे, क्या- क्या कहना है ?
वो कहे तो बन जाये पत्थर,
और जब कहे तो-
फूलों सी बिछ जाये,
कठपुतली बन, उसका मन बहलाये,
बिन कहे ही, पूरी मिट जाये,
मैं पत्थर बन, खाती रही ठोकर पैरों की,
करती रही प्रतीक्षा, युगों- युगों तक,
कि आये एक और पुरुष,
और करे मेरा उद्धार,
है कैसी विडम्बना-
इस पुरुष समाज की,
कि देना है उसी को श्राप,
और उद्धार भी उसी को करना है,
आरोप लगाये ग़र पुरुष-
तो सही होने का प्रमाण भी-
स्त्री को ही देना है,
जब हो इच्छा उसकी
तो पुष्प- शैया सी बिछ जाये ,
और होने पर उसके रुष्ट-
बन जाये पत्थर की तरह-
प्राणहीन, भावहीन,
हे राम !

मैं तो फिर भी हूँ भाग्यशालिनी,
जो आये तुम जीवन में,
और डाल दिये मुझ निर्जीव में प्राण,
लेकिन हैं कितनी हतभागिनी ऐसी भी,
जिनके जीवन में नहीं आता कोई राम,
आते हैं तो- सिर्फ इन्द्र या रावण रूपी अहंकारी पुरुष,
जिसकी इच्छा की पूर्ति करना ही है-
स्त्री का एकमात्र धर्म,
उसके इशारों पर नाचना ही है-
उसका एकमात्र कर्म,
तुमने अपने स्पर्श से जिला तो दिया मुझे,
पर युगों- युगों तक यही कहेगी दुनिया कि-
देखो राम ने तारा अहल्या को,
वरना थी वह पाषाण होने के ही योग्य,
क्यों हर कदम पर, करता है पुरुष ही एहसान ?
स्त्री के भाग्य का निर्धारण,
क्यों करता है वही तय,
कि कब बने स्त्री, प्रेम का साकार रुप,
और कब पाषाण बन सहे अत्याचार बिल्कुल मौन,
क्या किया कभी आभास, मेरा दर्द किसी ने ?
जो करके भी पूर्ण समर्पण
हो गई श्रापित,
वाह !

क्या पाया मैंने सुन्दर पारितोष ?
निभाते हुये निज धर्म,
सोचो, अपना धर्म निभाते भी पाया मैंने अभिशाप,
तो फिर देते हो किस धर्म की दुहाई ?
अरे कुछ तो बोलो राम
ये मौन क्यों ?
या कोई उत्तर नहीं पास तुम्हारे,
होगा भी कैसे ?
जग की सारी वर्जनायें सारी मर्यादायें,
हैं स्त्री के लिये ही तो,
कब कर सकी स्त्री,ल समता पुरुष से ?
वह तो है अनुचरी पुरुष की,
उसकी इच्छा की दासी बनना ही उसका धर्म,
पर क्या कभी समझ सका मदांध पुरुष,
समर्पण स्त्री का,
स्त्री सिर्फ़,
प्रेम ही नहीं करती,
प्रेम में जीती है,
उसके तन का समर्पण है,
वस्तुतः उसके मन का पूर्ण समर्पण,
प्रेम स्त्री के तन में एकाकार हो होता है प्रकट,
कर लेती है वह समाहित अपना अस्तित्व- पुरुष में,
अरे बन कर देखते कभी स्त्री
तब जान पाते उसका समर्पण,
लेकिन तुम तो उद्धारक बन,
बन जाते हो वंदनीय,
लेकिन मैं अहल्या भोगती हूँ,
सजा उस पाप की जो किया ही नहीं मैंने,
सच तो ये है राम कि,
पुरुष ही करता है बाध्य पत्थर बनने को,
नहीं तो कांटों को चुन,
सिर्फ़ पुष्प बनना जानती है स्त्री,
समर्पित होना ही है- स्त्री हो जाना,
उसका समर्पण- उसकी कमजोरी नहीं,
अपनी इच्छायें वह,
इसलिये नहीं मारती कि
उसे मारना ही होगा उन्हें,
बल्कि इसलिये कि,
कोई इच्छा ही नहीं रहती शेष पुरुष में एकाकार हो,
क्या उसका ये समर्पण ही है उसके लिये अभिशाप ?
बताओ राम, क्यों हो मौन ?
या कोई उत्तर नहीं पास तुम्हारे,
या मानते हो तुम भी,
कि स्त्री कुछ भी कहे,
तो या तो हो जाओ मौन,
या करो उस पर प्रहार,
राम !

भले ही मत बोलो आज तुम,
लेकिन मैं युगों- युगों तक यही पूछती रहूँगी मैं,
कि क्या स्त्री का प्रेम , है उसकी इच्छा-पूर्ति ?
कि उसका समर्पण है क्या उसकी कमजोरी ?
कि उसका त्याग है क्या उसकी बाध्यता ?
या उसका एकाकार हो जाना है, उसका दासत्व ?
नहीं राम !
उसका प्रेम, उसका समर्पण, उसका त्याग,
उसका एकाकार हो जाना ही है-
स्त्री हो जाना,
और हाँ,
मुझे गर्व है कि मैं एक स्त्री हूँ,
एक सम्पूर्ण स्त्री ।

मुझे तलाश है ऐसी फेमिनिज़म की, जो बड़े वक्त से लापता है
शायद उन बड़े घरों की लड़कियों के ब्लॉग्स में कहीं छुप गया है
ये वो फेमिनिज़म नहीं जो हर मुद्दे को लड़का, लड़की में बांटता है
ये वो भी नहीं जो सिर्फ ब्लॉग्स, पोस्ट या सिर्फ स्टोरी तक ही सीमित रहता है
इसे देर रात तक ऑफिस में काम करने का कोई शौक नहीं
ये करता नहीं पापा और भाई के हर काम में दखलअंदाजी कभी
न इसे छोटे कपड़े पहनने का शौक है,
न ये गाली देने को कूल समझता है
और जो कह दो इससे अगर देर रात तक पार्टी करने को
तो ये कतराता भी बहुत है
ये पीरियड्स के बारे में बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता
सिर्फ लड़की है इसलिए इज्जत मिले, इसे मुनासिब नहीं लगता
ये फॉर मोर शॉट्स से कम और थप्पड़ से ज्यादा प्रेरित था
पुराने ज़माने का है
रानी पद्मिनी, लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्तान में जीवित था
इसे इज्जत की मांग तभी है, जब ये इज्जतदार काम करे
न सिर्फ ब्लॉग्स, कमेंट्स और पोस्ट को लिखे
मगर उन शब्दों पर अमल भी करे
ये वाला फेमिनिज़म अभी थोड़ा सा बाकी है
कभी ढूंढना इसे अपनी नानी, दादी या मां में
उनको लहज़ा है चलने, उठने, बोलने और बैठने का
उन्हें घर के कामों में कोई ऐतराज़ नहीं होता है
क्योंकि वो इसे अपनी बंदिश कम और ज़्यादा समझते मर्यादा हैं
ये नहीं चाहता किसी लड़के को नीचा दिखाना
शर्मीला भी है और है महत्वकांक्षी भी
इसलिए मांगता है ये सिर्फ नारी शक्ति
नारी सत्ता नहीं
ये पढ़े या न पढ़े, इसे अपनी कमज़ोरी नहीं मानता
अपने आत्मसम्मान और कर्तव्यों को आगे रख
सिर्फ अपने कर्मों को है सुधारता
इसकी खासियत ये है कि ये बोलता कम है
लड़का और लड़की दोनों में मिलता है
उन्हें अलग नहीं बल्कि जोड़कर रखता है
कभी मिल जाए ये फेमिनिज़म किसी गांव देहात में
तो मुझे जरूर बताना
वो क्या है न, मैं जानती हूँ ये खोया नहीं
बस इस जमाने में कोई चाहता नहीं इसके बारे में बताना
इसकी खासियत एक और है..
ये बहुत मॉडेस्ट है

भगवान ने दो जीव बनाये
नर भारी
कोमलांगी नारी
रथ के दो पहिये थे
साथ चलते
और रुकते थे
एक – सा
सम्मान था
ये सतयुग था
फिर अचानक
नर को लगा
कि
मैं हूँ भारी
तो क्यों करूँ
सम्मानित नारी
उसे यह वहम भा गया
और अपने ही
भुलावे में वो आ गया
भूल गया कि
दोनों से ही
चलती है सृष्टि
हर धर्म करता है
इस कथ्य की पुष्टि
ये कलयुग है
करुणा, वात्सल्य हैं
नारी के गहने
उसकी सौम्यता के
क्या कहने
हर नारी की
अपनी गरिमा है
उसका गौरव ही
उसकी महिमा है
नारी का सम्मान
हमारी संस्कृति की
पहचान है
संसार को चलाने वाली
मातृशक्ति
महान है
एक छोटा-सा
प्रण करें आज
नारी होने के नाते
अपना फर्ज़ निभायेंगे
और
इस कलयुग को
फिर से
सतयुग बनायेंगे
हम पहचानें
अपनी शक्ति
छू लें वो आकाश
जो जुनून हो
उड़ने का
तो
मिल ही जाती है
पंखों को परवाज़।

यहां भी पढ़ें: world women’s day: रोजाना एक कविता में पढ़ें अपने अंत:पुर से बाहर आती स्त्रियों की कविता

Exit mobile version